गुजरात राज्य के गोमती नदी के तट पर द्वारका स्थित है। द्वारका हिन्दुओ के सबसे बड़े तीर्थो में से एक है और सात पुरियो में से एक पुरि है।
महाभारत काल में भगवान श्री कृष्ण ने सौराष्ट्र में एक खूबसूरत द्वारिका नगरी ( Dwarika Nagri ) बसाई थी जिसके शिल्पकार देवताओं के वास्तुविद विश्वकर्मा ही थे और जिसका उल्लेख बहुत से ग्रंथो, महाभारत , भागवत पुराण आदि में मिलता है वर्तमान में वो नगरी गुजरात के निकट समुद्र की गहराइयों में पाई गई है।
सौराष्र्ट के समुद्र तट के निकट बसी द्वारिका ( Dwarika ) शहर के चारों ओर बहुत ही लंबी दीवार थी जिसमें कई द्वार थे ।इसलिए द्वारों का शहर होने के कारण इस नगर का नाम द्वारिका पड़ा था । वह दीवार आज भी समुद्र के तल में स्थित है। द्वारिका ( Dwarika ) भारत के सबसे प्राचीन नगरों में से एक माना जाता है ।
ये 7 प्राचीन नगर हैं- द्वारिका, मथुरा, काशी, हरिद्वार, अवंतिका, कांची और अयोध्या। द्वारिका ( Dwarika ) को द्वाही रावती, कुशस्थली, गोमती द्वारिका, चक्रतीर्थ, अंतरद्वीप, उदधिमध्यस्थान भी कहा जाता है।
ग्रंथो के अनुसार कृष्ण ने जब अपने मामा राजा कंस का वध करके अपने नाना को मथुरा का राजा बनाया दिया तो कंस की पत्नी अस्ति व प्राप्ति ने अपने पिता अर्थात कंस के ससुर मगध के राजा जरासंध को श्रीकृष्ण से बदला लेने के लिए उकसाया। तब जरासंध ने श्रीकृष्ण के साथ-साथ पूरी पृथ्वी से समस्त यदुवंशियों का नाश करने का संकल्प ले लिया और उसने यदुवंशियों की राजधानी मथुरा पर आक्रमण कर दिया । इस युद्ध में श्रीकृष्ण और बलराम ने अपनी सेना के साथ वीरता से जरासंध की सेना को परास्त कर दिया। हारकर जरासंध वापस लौट गया। लेकिन उसने मथुरा और यादवों पर बारं बार 17 बार आक्रमण किये । उसके साथ इस युद्ध में और भी कई मलेच्छ और यवनी राजा शामिल हो गए ।
अंतत: काफी युद्धों के बाद अपने कुल , यादवों की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए, निरपराधों का नरसंहार रोकने के लिए भगवान कृष्ण ने मथुरा को छोड़ने का निर्णय लिया।
यह इतिहास का सबसे बड़ा माइग्रेशन था , जिसमें भगवान श्री कृष्ण के कुल के अतिरक्त उग्रसेन, अक्रूर, बलराम आदि 18 कुलो के यादवो के लाखो की तादात में लोग मथुरा को छोड़कर अपने पूर्वजो के स्थान द्वारिका लौट गए। मथुरा मंडल के लाखो लोगो ने उन्हें रोकने का बहुत प्रयास किया जिसमें बहुत से दूसरे यादव कुल के लोग भी थे लेकिन श्रीकृष्ण जी तो मात्र छोड़ने की ठान ही चुके थे । श्री कृष्ण जी के जाने के बाद मथुरा की आबादी बहुत कम रह गयी और फिर मथुरा पर जरासंध का शासन हो गया ।
विनता के पुत्र गरूड़ की सलाह एवं ककुद्मी के आमंत्रण पर कृष्ण सौराष्ट्र के तट पर कुशस्थली आ गए। वर्तमान द्वारिका नगर कुशस्थली के रूप में पहले से ही थी, कृष्ण जी ने इसी उजाड़ हो चुकी नगरी को पुनः द्वारिका ( Dwarika ) के रूप में बसाया।
पौराणिक कथाओं के अनुसार एक समय महाराजा रैवतक के समुद्र में कुश बिछाकर यज्ञ किया था इसी कारण इस नगरी का नाम कुशस्थली हो गया था ।
द्वारिका ( Dwarika ) के निर्माण के लिए उन्होंने विश्कर्मा देव को नियुक्त किया और विश्वकर्मा जी ने इसके लिए समुंद्र देवता की मदद मांगी। समुन्द्र देवता ने प्रसन्न होकर राज्य बनाने के लिए उनकी सहायता की और उन्हें 12 योजना माप कर दे दी ।
कृष्ण के आदेश देने पर देवताओं के प्रधान शिल्पी विश्वकर्मा ने भव्य द्वारिका नगरी ( Dwarika nagri ) का नक्शा बनाया। देवताओं के नगरों के निर्माता विश्वकर्मा जी ने केवल 2 दिनों की छोटी अवधि में अत्यंत खूबसूरत द्वारका नगर का निर्माण कर दिया ।
निर्माण के बाद द्वारिका को ‘सुवर्णा द्वारका’ कहा गया क्योंकि हीरे, पन्ने , सोने, और गहने का उपयोग भगवान कृष्ण के ‘सुवर्णा द्वारका’ में महलो और भवनों के निर्माण के लिए किया गया था। विश्वकर्मा जी ने द्वारिका ( Dwarika ) में रत्नों के अतिरिकत , संगमरमर, पत्थर तथा अन्य धातुओं से भी बहुत ही खूबसूरत, वास्तुकला में बेजोड़ भवनों का निर्माण किया।
यह भी माना जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण की प्रिय नगरी द्वारिका इसलिए सबसे अलग, सबसे सुन्दर थी कि इसका निर्माण देवताओं के शिल्पी विश्वकर्मा जी के साथ असुरों के शिल्पी ‘मयदानव’ ने मिलकर किया था।
मान्यता है कि द्वारिका ( Dwarika ) का निर्माण कार्य पूर्ण होने के बाद भगवान श्री कृष्ण ने अपनी योगमाया से अपने 18 नए कुल-बंधुओं, सभी मथुरावासियों को रात में सोते हुए ही द्वारिका पहुंचा दिया और सभी को उनकी योग्यता के अनुसार उन्हें रहने के उचित स्थान प्रदान किए।
पुराणों में कई जगह द्वारिका ( Dwarika ) नगरी का वर्णन मिलता है। कहा जाता है की यहाँ के विशाल भवन सूर्य और चंद्रमा के समान प्रकाशवान् तथा मेरू के समान उच्च थे। नगर के चारो ओर गंगा और सिंधु नदी के समान चौड़ी खाइयां थीं, जिनके जल में कमल के पुष्प खिले थे तथा हंस आदि पक्षी क्रीड़ा करते थे।
रमणीय द्वारकापुरी की पूर्व दिशा में महाकाय रैवतक नामक पर्वत (वर्तमान में गिरनार पर्वत ) नगर के आभूषण के समान अपने शिखरों सहित सुशोभित था । नगर की अन्य तीन दिशाओं , दक्षिण में लतावेष्ट, पश्चिम में सुकक्ष और उत्तर में वेष्णुमंत पर्वत स्थित थे और इन पर्वतों मे अनेक उद्यान थे।
कहते है कि महानगरी द्वारका ( mahanagri Dwarika ) के पचास प्रवेश द्वार थे और इन्हीं बहुसंख्यक द्वारों के कारण इस नगर का नाम द्वारका या द्वारवती था। यह नगर चारों से सागर से घिरी हुई थी। सुन्दर महलो, भवनों से भरी द्वारका अपने सौंदर्य से सबक मन मोह लेती थी। नगर के लोग रूपवान, सुखी और बहुत संपन्न थे। द्वारका नगरी की रक्षा तीक्ष्ण यन्त्र, शतघ्नियां , अनेक यन्त्रजाल और लौहचक्र करते थे अर्थात या नगर अभेद था।
द्वारका नगरी की लम्बाई बारह योजन तथा चौड़ाई आठ योजन थी । द्वारका में आठ प्रमुख राजमार्ग और सोलह चौराहे थे जिन्हें शुक्राचार्य की नीति के अनुसार बनाया गया था। श्रीकृष्ण का राजमहल चार योजन लंबा-चौड़ा था, वह वास्तुशिल्प का अदभुत महल प्रासादों तथा क्रीड़ापर्वतों से संपन्न था। उसे स्वयं विश्वकर्मा ने बनाया था ।
गुजरात के समुद्र तट पर बसी अपनी प्रिय नगरी द्वारिका के एक-एक भवन का निर्माण श्रीकृष्ण की इच्छानुसार किया गया था। परंतु यह बड़ा अजीब है कि श्रीकृष्ण जी अपनी इस प्रिय नगरी में कभी भी 6 माह से अधिक नहीं रह पाए।
श्रीकृष्ण के देह त्यांगने के पश्चात् पूरी द्वारका नगरी , सिर्फ श्रीकृष्ण का भवन छोड़कर समुद्र में समा गयी थी ।
विष्णु पुराण में उल्लेख है कि
‘प्लावयामास तां शून्यां द्वारकां च महोदधि: वासुदेवगृहं त्वेकं न प्लावयति सागर:,
भगवान कृष्ण द्वारिका ( Bhagwan krishn Dwarika ) के राजा नहीं थे वरन उनके बड़े भाई बलराम ही द्वारिका वास्तविक प्रशासक थे। परन्तु जनता में श्री कृष्ण जी इतने लोकप्रिय थे कि बलराम के स्थान पर उन्हीं को द्वारिकाधीश कहा जाने लगा।
यहीं पर 36 वर्ष तक राज्य करने के बाद उनका देहावसान हुआ। महाभारत के युद्ध के पश्चात कौरवो की माँ गांधारी ने श्री कृष्ण को श्राप दिया कि जैसे मेरे कौरव वंश का नाश हुआ वैसे ही तुम्हारा यदुवंश भी नष्ट हो जाएगा। कृष्ण ने इस श्राप को माँ गांधारी का आदेश मान कर सहज ही स्वीकार कर लिया था।
भगवान श्री कृष्ण के सामने ही समस्त यदुवंशी आपस में युद्द करके मारे गए, और फिर श्री कृष्ण जी स्वर्गारोहण के पश्चात समस्त द्वारिका नगरी को समुद्र ने अपने आगोश में ले लिया और यह खूबसूरत, अदभुत नगरी कालान्तर में एक स्वप्न में बदल गयी। द्वारिका के समुद्र में डूब जाने और यादव कुलों के नष्ट हो जाने के बाद कृष्ण के प्रपौत्र वज्र अथवा वज्रनाभ द्वारिका के यदुवंश के अंतिम शासक थे, जो यदुओं की आपसी लड़ाई में जीवित बच गए थे।
यदुवंश के नाश और श्री कृष्ण जी के स्वर्ग चले जाने के बाद श्री कृष्ण के प्रिय अर्जुन द्वारिका गए और वहां पर वज्र तथा शेष बची यादव महिलाओं को वहॉं से अपने साथ हस्तिनापुर ले गए। उन्होंने कृष्ण के प्रपौत्र वज्र को हस्तिनापुर में मथुरा का राजा घोषित किया। उन्ही वज्रनाभ के नाम से ही मथुरा क्षेत्र को ब्रजमंडल भी कहा जाता है।
महाभारत काल में भगवान श्री कृष्ण ने सौराष्ट्र में एक खूबसूरत द्वारिका नगरी ( Dwarika Nagri ) बसाई थी जिसके शिल्पकार देवताओं के वास्तुविद विश्वकर्मा ही थे और जिसका उल्लेख बहुत से ग्रंथो, महाभारत , भागवत पुराण आदि में मिलता है वर्तमान में वो नगरी गुजरात के निकट समुद्र की गहराइयों में पाई गई है।
सौराष्र्ट के समुद्र तट के निकट बसी द्वारिका ( Dwarika ) शहर के चारों ओर बहुत ही लंबी दीवार थी जिसमें कई द्वार थे ।इसलिए द्वारों का शहर होने के कारण इस नगर का नाम द्वारिका पड़ा था । वह दीवार आज भी समुद्र के तल में स्थित है। द्वारिका ( Dwarika ) भारत के सबसे प्राचीन नगरों में से एक माना जाता है ।
ये 7 प्राचीन नगर हैं- द्वारिका, मथुरा, काशी, हरिद्वार, अवंतिका, कांची और अयोध्या। द्वारिका ( Dwarika ) को द्वाही रावती, कुशस्थली, गोमती द्वारिका, चक्रतीर्थ, अंतरद्वीप, उदधिमध्यस्थान भी कहा जाता है।
ग्रंथो के अनुसार कृष्ण ने जब अपने मामा राजा कंस का वध करके अपने नाना को मथुरा का राजा बनाया दिया तो कंस की पत्नी अस्ति व प्राप्ति ने अपने पिता अर्थात कंस के ससुर मगध के राजा जरासंध को श्रीकृष्ण से बदला लेने के लिए उकसाया। तब जरासंध ने श्रीकृष्ण के साथ-साथ पूरी पृथ्वी से समस्त यदुवंशियों का नाश करने का संकल्प ले लिया और उसने यदुवंशियों की राजधानी मथुरा पर आक्रमण कर दिया । इस युद्ध में श्रीकृष्ण और बलराम ने अपनी सेना के साथ वीरता से जरासंध की सेना को परास्त कर दिया। हारकर जरासंध वापस लौट गया। लेकिन उसने मथुरा और यादवों पर बारं बार 17 बार आक्रमण किये । उसके साथ इस युद्ध में और भी कई मलेच्छ और यवनी राजा शामिल हो गए ।
अंतत: काफी युद्धों के बाद अपने कुल , यादवों की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए, निरपराधों का नरसंहार रोकने के लिए भगवान कृष्ण ने मथुरा को छोड़ने का निर्णय लिया।
यह इतिहास का सबसे बड़ा माइग्रेशन था , जिसमें भगवान श्री कृष्ण के कुल के अतिरक्त उग्रसेन, अक्रूर, बलराम आदि 18 कुलो के यादवो के लाखो की तादात में लोग मथुरा को छोड़कर अपने पूर्वजो के स्थान द्वारिका लौट गए। मथुरा मंडल के लाखो लोगो ने उन्हें रोकने का बहुत प्रयास किया जिसमें बहुत से दूसरे यादव कुल के लोग भी थे लेकिन श्रीकृष्ण जी तो मात्र छोड़ने की ठान ही चुके थे । श्री कृष्ण जी के जाने के बाद मथुरा की आबादी बहुत कम रह गयी और फिर मथुरा पर जरासंध का शासन हो गया ।
विनता के पुत्र गरूड़ की सलाह एवं ककुद्मी के आमंत्रण पर कृष्ण सौराष्ट्र के तट पर कुशस्थली आ गए। वर्तमान द्वारिका नगर कुशस्थली के रूप में पहले से ही थी, कृष्ण जी ने इसी उजाड़ हो चुकी नगरी को पुनः द्वारिका ( Dwarika ) के रूप में बसाया।
पौराणिक कथाओं के अनुसार एक समय महाराजा रैवतक के समुद्र में कुश बिछाकर यज्ञ किया था इसी कारण इस नगरी का नाम कुशस्थली हो गया था ।
द्वारिका ( Dwarika ) के निर्माण के लिए उन्होंने विश्कर्मा देव को नियुक्त किया और विश्वकर्मा जी ने इसके लिए समुंद्र देवता की मदद मांगी। समुन्द्र देवता ने प्रसन्न होकर राज्य बनाने के लिए उनकी सहायता की और उन्हें 12 योजना माप कर दे दी ।
कृष्ण के आदेश देने पर देवताओं के प्रधान शिल्पी विश्वकर्मा ने भव्य द्वारिका नगरी ( Dwarika nagri ) का नक्शा बनाया। देवताओं के नगरों के निर्माता विश्वकर्मा जी ने केवल 2 दिनों की छोटी अवधि में अत्यंत खूबसूरत द्वारका नगर का निर्माण कर दिया ।
निर्माण के बाद द्वारिका को ‘सुवर्णा द्वारका’ कहा गया क्योंकि हीरे, पन्ने , सोने, और गहने का उपयोग भगवान कृष्ण के ‘सुवर्णा द्वारका’ में महलो और भवनों के निर्माण के लिए किया गया था। विश्वकर्मा जी ने द्वारिका ( Dwarika ) में रत्नों के अतिरिकत , संगमरमर, पत्थर तथा अन्य धातुओं से भी बहुत ही खूबसूरत, वास्तुकला में बेजोड़ भवनों का निर्माण किया।
यह भी माना जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण की प्रिय नगरी द्वारिका इसलिए सबसे अलग, सबसे सुन्दर थी कि इसका निर्माण देवताओं के शिल्पी विश्वकर्मा जी के साथ असुरों के शिल्पी ‘मयदानव’ ने मिलकर किया था।
मान्यता है कि द्वारिका ( Dwarika ) का निर्माण कार्य पूर्ण होने के बाद भगवान श्री कृष्ण ने अपनी योगमाया से अपने 18 नए कुल-बंधुओं, सभी मथुरावासियों को रात में सोते हुए ही द्वारिका पहुंचा दिया और सभी को उनकी योग्यता के अनुसार उन्हें रहने के उचित स्थान प्रदान किए।
पुराणों में कई जगह द्वारिका ( Dwarika ) नगरी का वर्णन मिलता है। कहा जाता है की यहाँ के विशाल भवन सूर्य और चंद्रमा के समान प्रकाशवान् तथा मेरू के समान उच्च थे। नगर के चारो ओर गंगा और सिंधु नदी के समान चौड़ी खाइयां थीं, जिनके जल में कमल के पुष्प खिले थे तथा हंस आदि पक्षी क्रीड़ा करते थे।
रमणीय द्वारकापुरी की पूर्व दिशा में महाकाय रैवतक नामक पर्वत (वर्तमान में गिरनार पर्वत ) नगर के आभूषण के समान अपने शिखरों सहित सुशोभित था । नगर की अन्य तीन दिशाओं , दक्षिण में लतावेष्ट, पश्चिम में सुकक्ष और उत्तर में वेष्णुमंत पर्वत स्थित थे और इन पर्वतों मे अनेक उद्यान थे।
कहते है कि महानगरी द्वारका ( mahanagri Dwarika ) के पचास प्रवेश द्वार थे और इन्हीं बहुसंख्यक द्वारों के कारण इस नगर का नाम द्वारका या द्वारवती था। यह नगर चारों से सागर से घिरी हुई थी। सुन्दर महलो, भवनों से भरी द्वारका अपने सौंदर्य से सबक मन मोह लेती थी। नगर के लोग रूपवान, सुखी और बहुत संपन्न थे। द्वारका नगरी की रक्षा तीक्ष्ण यन्त्र, शतघ्नियां , अनेक यन्त्रजाल और लौहचक्र करते थे अर्थात या नगर अभेद था।
द्वारका नगरी की लम्बाई बारह योजन तथा चौड़ाई आठ योजन थी । द्वारका में आठ प्रमुख राजमार्ग और सोलह चौराहे थे जिन्हें शुक्राचार्य की नीति के अनुसार बनाया गया था। श्रीकृष्ण का राजमहल चार योजन लंबा-चौड़ा था, वह वास्तुशिल्प का अदभुत महल प्रासादों तथा क्रीड़ापर्वतों से संपन्न था। उसे स्वयं विश्वकर्मा ने बनाया था ।
गुजरात के समुद्र तट पर बसी अपनी प्रिय नगरी द्वारिका के एक-एक भवन का निर्माण श्रीकृष्ण की इच्छानुसार किया गया था। परंतु यह बड़ा अजीब है कि श्रीकृष्ण जी अपनी इस प्रिय नगरी में कभी भी 6 माह से अधिक नहीं रह पाए।
श्रीकृष्ण के देह त्यांगने के पश्चात् पूरी द्वारका नगरी , सिर्फ श्रीकृष्ण का भवन छोड़कर समुद्र में समा गयी थी ।
विष्णु पुराण में उल्लेख है कि
‘प्लावयामास तां शून्यां द्वारकां च महोदधि: वासुदेवगृहं त्वेकं न प्लावयति सागर:,
भगवान कृष्ण द्वारिका ( Bhagwan krishn Dwarika ) के राजा नहीं थे वरन उनके बड़े भाई बलराम ही द्वारिका वास्तविक प्रशासक थे। परन्तु जनता में श्री कृष्ण जी इतने लोकप्रिय थे कि बलराम के स्थान पर उन्हीं को द्वारिकाधीश कहा जाने लगा।
यहीं पर 36 वर्ष तक राज्य करने के बाद उनका देहावसान हुआ। महाभारत के युद्ध के पश्चात कौरवो की माँ गांधारी ने श्री कृष्ण को श्राप दिया कि जैसे मेरे कौरव वंश का नाश हुआ वैसे ही तुम्हारा यदुवंश भी नष्ट हो जाएगा। कृष्ण ने इस श्राप को माँ गांधारी का आदेश मान कर सहज ही स्वीकार कर लिया था।
भगवान श्री कृष्ण के सामने ही समस्त यदुवंशी आपस में युद्द करके मारे गए, और फिर श्री कृष्ण जी स्वर्गारोहण के पश्चात समस्त द्वारिका नगरी को समुद्र ने अपने आगोश में ले लिया और यह खूबसूरत, अदभुत नगरी कालान्तर में एक स्वप्न में बदल गयी। द्वारिका के समुद्र में डूब जाने और यादव कुलों के नष्ट हो जाने के बाद कृष्ण के प्रपौत्र वज्र अथवा वज्रनाभ द्वारिका के यदुवंश के अंतिम शासक थे, जो यदुओं की आपसी लड़ाई में जीवित बच गए थे।
यदुवंश के नाश और श्री कृष्ण जी के स्वर्ग चले जाने के बाद श्री कृष्ण के प्रिय अर्जुन द्वारिका गए और वहां पर वज्र तथा शेष बची यादव महिलाओं को वहॉं से अपने साथ हस्तिनापुर ले गए। उन्होंने कृष्ण के प्रपौत्र वज्र को हस्तिनापुर में मथुरा का राजा घोषित किया। उन्ही वज्रनाभ के नाम से ही मथुरा क्षेत्र को ब्रजमंडल भी कहा जाता है।